हिमालयन सोसाईटी ऑफ थैलेसीमिकस , गैप फाउंडेशन-जीनोमिस एंड पब्लिक हैल्थ फांउडेशन और उत्तराखंड विज्ञान एवं अनुसंधान केन्द्र-यूसर्क द्वारा 8 मई को अन्तर्राष्ट्रीय थैलेसीमिया दिवस संयुक्त रूप से डब्लू.आई.सी. परिसर में मनाया गया

हिमालयन सोसाईटी ऑफ थैलेसीमिकस , गैप फाउंडेशन-जीनोमिस एंड पब्लिक हैल्थ फांउडेशन और उत्तराखंड विज्ञान एवं अनुसंधान केन्द्र-यूसर्क द्वारा 8 मई को अन्तर्राष्ट्रीय थैलेसीमिया दिवस संयुक्त रूप से डब्लू.आई.सी. परिसर में मनाया गया। दुनिया में थैलेसीमिया के रोगियों की बढ़ती संख्या व इसके प्रभावी रोकथाम के मध्यनजर अन्तर्राष्ट्रीय थैलेसीमिया फैडरेशन ने 25 साल पहले अन्तर्राष्ट्रीय थैलेसीमिया दिवस की शुरूआत की।

गैप फाउंडेशन की डा. सुजाता सिन्हा ने बताया कि थैलेसीमिया रक्त का एक आनुवांशिक यानि पीढ़ी दर पीढ़ी दर पीढ़ी चलने वाला रोग है। इस रोग में बच्चा पैदा तो स्वस्थ होता है पर 2-3 माह बाद उसमें खून की कमी होने लगती है। थैलेसीमिया रोग में रक्तकोशिकाएं, हीमोग्लोबिन विहीन होती हैं। इसलिए यह रक्त संचरण में आने से पहले ही टूट जाती हैं। हडि्डयों का विकार, जिगर व तिल्ली के बढ़ने व पोषण ना मिलने से बच्चे का विकास रूक जाता है और बच्चे में कई प्रकार के विकार पैदा होने लगते हैं। अधिकतर बच्चों में यदि 2-5 साल में इनको ईलाज ना मिले तो रोग की तीव्रता बढ़ने से इनकी मौत हो जाती है। यदि ऐसे बच्चों को नियमित रक्त चढ़े व उनके रक्त से अनावश्यक आयरन निकालने हेतु दवा दी जाये तो इन बच्चों का विकास भी सही होगा और न रोग का कोई विकार होगा और ना ही कोई जटिलता पैदा होगी।

उन्होंने बताया कि हमारे शरीर में करीब 30 हज़ार तरह के जीन होते हैं, जो जोड़ों में पाये जाते हैं (उनमें एक माता से और दूसरा पिता से प्राप्त होता है)। इस रोग में खाने-पीने या वातावरण का असर नहीं पड़ता। यदि जीन में दोष है तो ही थैलेसीमिया रोग होगा। चिकित्सीय परीक्षण के दौरान इन दोषपूर्ण जीन का पता चल जाता है। इस दोषपूर्ण अवस्था को जागरूकता के चलते नियंत्रित किया जा सकता है। 4-5 दशकों से थैलेसीमिया के उपचार हेतु हर साल पीड़ित को 18-42 यूनिट खून नियमित रूप से चढ़ाना पड़ता है। औसतन 30 यूनिट खून एक थैलेसीमिया पीड़ित की सालाना जरूरत है। इसके अलावा खून चढ़ाने से पीड़ित के शरीर में आयरन की ज्यादा मात्रा जमा हो जाती है। इसे निकालने हेतु दवाओं का प्रयोग करना पड़ता है। थैलेसीमिया जटिल आनुवांशिक रोग है। इसका कोई ईलाज आसानी से उपलब्ध नहीं है। इसलिए समय रहते हुए थैलेसीमिया के ईलाज व उचित संसाधनों की उपलब्धता जरूरी है। इस रोग में अस्थि मज्जा का प्रत्यारोपण एक कारगर ईलाज है. लेकिन इसकी भी अपनी तरह की जटिलताएं हैं.

कार्यक्रम के मुख्य अतिथि वैज्ञानिक विधायक मुन्ना सिंह चौहान ने कहा कि गैप फाउंडेशन का यह प्रयास सराहनीय है। यह महत्वपूर्ण है कि इन आनुवांशिक रोगों की सही जानकारी लोगों को हो जिससे वह सही निर्णय लेकर अपनी भावी पीढ़ियों में होने वाले आनुवांशिक रोगों की हर संभावना को समाप्त कर सकें। थैलेसीमिया रोग की राष्ट्रीय स्थिति चौंकाने वाली हैं। इसलिए जरूरी है कि हर स्तर पर राष्ट्रीय थैलेसीमिया नीति का प्रभावी क्रियान्वयन सुनिश्चित हो। थैलेसीमिया ग्रसित बच्चों की जन्म दर में कमी हेतु दो स्तर पर क्रियान्वयन की रूपरेखा राष्ट्रीय नीति में तय की गई है जिसमें स्कूली बच्चों का थैलेसीमिया स्क्रीनिंग टेस्ट व गर्भस्थ शिशु की थैलेसीमिया जांच कराना शामिल है।

कोरोनेशन हास्पिटल की डा. कविता जुनेजा ने उत्तराखंड में राष्ट्रीय हैल्थ मिशन के अन्तर्गत थैलेसीमिया केयर कार्यक्रम, थैलेसीमिया रोग, उसमें जीन की भूमिका और उसकी रोकथाम के बारे में चौंकाने वाली जानकारियां देते हुए उत्तराखंड थैलेसीमिया कार्यक्रम के बारे में बताया.साथ ही कहा कि उत्तराखंड ने राष्ट्रीय थैलेसीमिया नीति बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है. उसमें डॉ सुजाता सिन्हा ने अहम् योगदान दिया.

यूसर्क निदेशक डा. दुर्गेश पंत ने थैलेसीमिया नियंत्रण में शिक्षा की भूमिका पर प्रकाश डालते हुए कहा कि यूसर्क चिकित्सा विज्ञान से जुड़ी इन जटिल जानकारियों को स्कूली छात्रों तक पहुंचाने के काम में पिछले 6 महीने से गैप फाउंडेशन के साथ जुटा है। हमारी योजना है कि हम इस महत्वपूर्ण कार्यक्रम को दुर्गम इलाकों तक पहुंचाए जिससे थैलेसीमिया ग्रसित संतानें पैदा ना हों। हम इस मुद्दे पर जागरूकता फैलाने हेतु प्रयासरत हैं।

गैप फाउंडेशन की शिखा घिल्डियाल ने बताया कि सन् 2016 में भारत में लगभग डेढ़ लाख बच्चे थैलेसीमिया ग्रसित थे। सन् 2026 तक यह संख्या 275000 होने की संभावना है। जहां इनके लिए सन् 2016 में ही 45 लाख ब्लड यूनिट की जरूरत महसूस हुई, वहीं सन् 2026 तक यह जरूरत 82.5 लाख यूनिट प्रतिवर्ष होगी। वर्तमान में देश में सिर्फ 110 लाख ब्लड यूनिट ही जमा हो पा रहा है। यदि इस संबध में कोई ठोस प्रभावी बचाव कार्यक्रम नहीं किया गया तो सभी थैलेसीमिया ग्रसित बच्चों के ईलाज हेतु ही देश में कुल जमा रक्त का 66 प्रतिशत चाहिए होगा.

उत्तराखंड में थैलेसीमिया रोग के उपचार व रोकथाम हेतु 2012 से स्वास्थ्य विभाग उत्तराखंड की मदद से देहरादून, हरिद्वार, नैनीताल और अल्मोड़ा जिलों के स्कूलों व सरकारी अस्पतालों में काम चल रहा है। साथ ही किशोरावस्था में थैलेसीमिया की वाहक अवस्था की जानकारी लेने हेतु बच्चों की स्क्रीनिंग की जा रही है। उत्तराखंड में कुल जनसंख्या का लगभग 1 प्रतिशत थैलेसीमिया जीन का वाहक है, जो कि एक चौंकाने वाला संकेत हैं। देश में इस वक्त 67 सोसाईटी थैलेसीमिया की रोकथाम हेतु सक्रिय हैं।

कार्यक्रम में विकासनगर के 12 में से उन 3 इंटर कालेज के बच्चों ने प्रतिभाग किया जिनको थैलेसीमिया स्क्रीनिंग कार्यक्रम से जोड़ा गया है। इन 6 बच्चों ने अपने-अपने रोचक अनुभव बांटे। उनकी जानकारियां को सुनकर उपस्थित लोग दंग रह गये। साथ ही थैलेसीमिया ग्रसित बच्चों के माता-पिता की ओर से थैलेसीमिया रोग के साथ उनकी रोजमर्रे की जिंदगी के संघर्ष, रोग की जटिलता और अपनी परेशानियां को भी साझा किया गया। कार्यक्रम में थैलेसीमिया ग्रसित बच्चों की सुंदर पोस्टर प्रदर्शनी ने सबका मन मोहा।

कार्यक्रम में गैप फाउंडेशन की रीनू पाल, कुसुम रावत, हिमालयन सोसाईटी ऑफ थैलेसीमिया के अध्यक्ष पुनीत कौरा, नीतेश शर्मा, रीमा पंत, विनीत जैन, स्कालर होम, आर.आई.एम.सी. स्कूलों के अध्यापक व छात्रों सहित बड़ी संख्या में लोगों ने जनहित के इस कार्यक्रम को सराहा।

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